कमलेश सिंह :- घाटशिला
पूर्वी सिंहभूम जिले के डुमरिया प्रखंड में कालीमाटी गांव के ग्रामीणों को ‘कालीमाटी का टार्जन’ कहकर संबोधित किया जाता है। वजह-पेड़-पौधों से प्यार और जंगल से अपनापन। गांव के 75 घरों के लोगों ने 1986 में जंगल बचाने का संकल्प लिया था। 34 सालों में 5 किमी की परिधि में हजारों पेड़ों को बचा चुके हैं। कालीमाटी के आसपास आज भी घने जंगल हैं, जिसका असर पर्यावरण पर पड़ा है। गांव और आसपास के इलाके में गर्मी में भी कंबल का सहारा लेना पड़ता है।
गांव के बुजुर्ग साखेन हेंब्रम के अनुसार, गांव की आबादी 800 है। जंगल की सुरक्षा के लिए गांव के हर घर के युवाओं को बारी-बारी से रोटेशन के आधार पर ड्यूटी दी जाती है। 24 घंटे 3 शिफ्टों में 5 की संख्या में तीर-धनुष से लैस होकर पहरा देते हैं। वन माफिया या किसी से खतरे का आभास हुआ तो विशेष तरह की सीटी बजाई जाती है।
34 साल पुराने संकल्प से बंधकर आज भी वन माफिया से कर रहे पेड़ों की रक्षा
कालीमाटी गांव में पांच टोले हैं बाहादा, रोहिनडीह, डुंगरीटोला, सड़कटोला और खेलाडीपा। इस संबंध में साधन हेंब्रम का कहना है कि पेड़-पौधे हमारी संतान के समान हैं। गांव के आसपास जंगल सिमट रहे थे। वन माफिया पेड़ काटकर ले जा रहे थे। 34 साल पहले गांव के तत्कालीन प्रधान गुईदी हेंब्रम ने सभी लोगों के साथ बैठक कर सभी को जंगल की रक्षा करने का संकल्प दिलाया था । तब से सभी एक जुट होकर जंगलों को जंगल माफियाओं से रक्षा करते आ रहे हैं । उन्होंने ने बताया कि शुरुआती दौर में लकड़ी तस्करों के हमले का सामना करना पड़ा, लेकिन गांव की एकजुटता के कारण उन्हें भागना पड़ा।
ग्रामीणों ने जंगल की पहरेदारी के लिए 1986 में रजिस्टर मेंटेन करना शुरू किया था तब से हर शिफ्ट में जाने वाली टीम के सदस्य रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर जंगल आते-जाते हैं। जंगल में वन माफिया या जंगली जानवरों से वे खुद अपनी रक्षा करते हैं। 50 हेक्टेयर जंगल में साल के अलावा कई फलदार पेड़ भी लगे हैं। जिन्हें बचाने का संकल्प लेकर चल रहे हैं और आगे भी चलते रहने का संकल्प है।