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कुड़मी समाज के बांदना में ढिंगुवान का महत्व-गुरुचरण महतो

rajdhani news

चांडिल कार्तिक मास के बांदना पर्व में ढिंगुवान कुड़मी समाज के लोगों का एक पुरुष प्रधान उत्सव है और इसका एक अपना अलग ही महत्व है। इसमें कुड़मी समुदाय के लोग अमावस्या रात में अपने गाय-बैलों व भैंसों का शुक्रिया अदा करते हुए उनके रूप, रंग, गुण तथा कार्यों का खूब बखान करते हैं और खेती-बाड़ी को संपन्न कराने में उनके विशेष योगदान को दिल से सराहते हैं तथा उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं।

कवि व गीतकार गुरुचरण महतो ने आगे बताया कि प्राचीन परंपरागत परंपरा के अनुसार, अधिकतर लोग ढिंगुवानी गंजी, लूंगी तथा सिर पर गमछा का पगड़ी बांधे रहता है। इसमें शामिल छोटे बच्चे टोपी, मफलर या स्वेटर में रहते हैं और वे भी अपने बाप दादा के साथ रात भर ढिंगुवानी करते हैं। घर की माएं या दादी जी इन बच्चों को काजल का टीका लगाती हैं या हाथ की केनी उंगली चूस कर छाती में थोड़ा थूक का छिंटा मारती है ताकि घोर अमावस्या योग में जब चारों तरफ भूत-प्रेत व पिशाच का ज्यादा प्रभाव रहता है तो उनके बच्चे पर किसी नकारात्मक शक्ति का असर ना हो, नजर ना लगे।

गांव के प्रत्येक घरों में इन ढिंगुवानी लोगों को खापरा पीठा,खैनी-बीड़ी दी जाती है तो किसी घर में चुआया हुआ शराब या हांड़िया का सेवन भी कराया जाता है।

श्री गुरुचरण आगे बताते हैं कि 15-20 मिनट के गीत, बाजना और सामूहिक नृत्य के बाद जब ढिंगुवान दल अगले घर के लिए प्रस्थान करने वाले होते हैं तो दल प्रमुख को खुशी से घरवाले स्वेच्छा पूर्वक कुछ नगद राशि भी थमाते हैं।

और हां, जब वे एक घर से दूसरे घर के लिए निकलते हैं तो कुछ व्यंग्यात्मक गीत गाकर तथा ढोल-नगाड़ा और झुनझुनी बजा कर उस नए घरवालों को अहसास कराते हैं कि हम लोग आ रहे हैं। रास्ते या डहर में गाए जाने के कारण इस गीत को डहरिया कहते हैं। इस तरह पूरा गांव के सभी घरों को जगाने के लिए यह दल बारी-बारी से जाता है और एकत्रित पैसा से कुछ पैसे को अगला दिन आपस में बांट लेते हैं तथा बाकी पैसों को ढोल-नगाड़ा के मरम्मत या अन्य सामूहिक कार्य में लगाते हैं।

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