नई दिल्ली:भारत सरकार ने अगले 90 दिनों में देश के हर स्मार्टफोन में ‘संचार साथी ऐप’ को अनिवार्य रूप से इंस्टॉल करने का आदेश जारी किया है। इसे न तो हटाया जा सकेगा, न ही बंद किया जा सकेगा। सुरक्षा के नाम पर इस कदम को सरकार डाटा प्रोटेक्शन के लिए अहम बता रही है, जबकि विशेषज्ञ इसे नागरिकों की निजता पर सीधा हमला और व्यापक निगरानी का खतरनाक औज़ार मान रहे हैं।
भारत सरकार द्वारा 28 नवंबर 2025 को जारी आदेश के अनुसार, मार्च 2026 से बाजार में बिकने वाले सभी नए स्मार्टफोन ‘संचार साथी ऐप’ के साथ प्री-इंस्टॉल आएंगे। वहीं, जिन नागरिकों के पास पुराने स्मार्टफोन हैं, उनमें यह ऐप अगले 90 दिनों के भीतर अनिवार्य सॉफ़्टवेयर अपडेट के ज़रिए जोड़ दिया जाएगा। कंपनियों को निर्देश है कि इस ऐप को हटाने या डिसेबल करने जैसे विकल्प बिल्कुल उपलब्ध नहीं रहेंगे।
सरकार का दावा है कि मोबाइल धोखाधड़ी रोकने, चोरी के फोन ब्लॉक करने और फर्जी सिम कार्ड ट्रैक करने में यह ऐप कारगर होगा। संचार मंत्रालय का कहना है कि इससे आम लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी और डिजिटल अपराधों पर नकेल कसी जा सकेगी।
लेकिन साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे अभूतपूर्व निगरानी तंत्र बताया है। उनका कहना है कि इस ऐप को फोन के लगभग सभी संवेदनशील डेटा तक पहुंच होगी—
• IMEI और डिवाइस आइडेंटिफायर
• कॉल लॉग और संपर्क रिकॉर्ड
• लोकेशन हिस्ट्री
• फोन उपयोग से जुड़े पैटर्न
तकनीकी विशेषज्ञों के अनुसार, यह ऐप फोन बंद जैसी अवस्था में भी बैकग्राउंड में सक्रिय रह सकता है। इससे न सिर्फ़ प्रत्येक गतिविधि का रियल टाइम रिकॉर्ड सरकार के पास रहेगा, बल्कि नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अदृश्य निगरानी की नई दीवार खड़ी हो जाएगी।
भारत में पहले से ही CEIR पोर्टल, दूरसंचार नियामक एवं पुलिस व्यवस्था के माध्यम से मोबाइल सुरक्षा के उपाय लागू हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि जब वैकल्पिक व्यवस्था सफलतापूर्वक चल रही थी, तो गोपनीयता से जुड़े इतने बड़े बदलाव पर राष्ट्रीय बहस या संसदीय चर्चा क्यों नहीं हुई?
हाल ही में डेटा चोरी और लीक की खबरें भी चिंताओं को बढ़ाती हैं। कुछ दिनों पूर्व एक वेबसाइट द्वारा करोड़ों मोबाइल नंबर, आधार, पता और पहचान संबंधी विवरण उपलब्ध होने का दावा सामने आया था। ऐसे मामलों में नागरिकों के डाटा की सुरक्षा पर भरोसा करना आसान नहीं रह गया है।
विशेषज्ञ इसे लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए भी ख़तरा मानते हैं। क्योंकि यदि पत्रकार, विपक्षी नेता, आंदोलनकारी और सरकारी आलोचक—सभी की संचार गतिविधियाँ लगातार निगरानी में रहेंगी, तो असहमति व्यक्त करने की आज़ादी स्वतः सीमित हो जाएगी।
कई जानकार रूस और चीन जैसे देशों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वहाँ पहले से ही निगरानी आधारित डिजिटल व्यवस्था लागू है और नागरिकों की स्वतंत्रता पर इसका प्रतिकूल प्रभाव देखा गया है। क्या भारत उसी राह पर बढ़ रहा है?
सबसे बड़ी चिंता यह है कि यदि इस ऐप को हैक कर लिया गया, तो 100 करोड़ से अधिक लोगों का संवेदनशील डेटा एक झटके में साइबर अपराधियों या विदेशी एजेंसियों के हाथों में जा सकता है। आलोचकों का कहना है कि सुरक्षा के नाम पर असुरक्षा का जोखिम खड़ा करना किसी भी तरह से तार्किक नहीं है।
सरकार फिलहाल इस ऐप को आवश्यक और सुरक्षित बताने पर अड़ी है। लेकिन टेक विशेषज्ञों से लेकर संविधान विशेषज्ञों तक, सभी मांग कर रहे हैं कि इस फैसले पर पारदर्शी चर्चा हो, स्वतंत्र डेटा ऑडिट प्रक्रिया लागू की जाए और नागरिकों की निजता के अधिकार का सम्मान किया जाए।
अब निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि क्या यह आदेश ज्यों का त्यों लागू होगा या समाज और कानूनी मोर्चे से उठने वाली आपत्तियाँ इसे रोकने में सफल होंगी। लेकिन इतना तय है — 90 दिनों बाद भारत का मोबाइल परिदृश्य पूरी तरह बदलने वाला है, और उसके साथ लोगों की डिजिटल आज़ादी भी।

