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झारखंड की रघुवर सरकार के 5 फैसले, जो हेमंत सोरेन के गले की फांस बन गए हैं

रांची:

हेमंत सरकार को झारखंड आए हुए 9 महीने हो चुके हैं. शुरुआती फैसलों पर उन्हें शाबासी मिली. फिर कोविड-19 महामारी इस सरकार के सामने नई चुनौती की तरह सामने आई. मजदूरों की सम्मान से वापसी और शर्त के मुताबिक फिर काम पर लौटाने की पहल ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को देशभर में चर्चा दिलाई. वहीं रांची में कोरोना हॉटस्पॉट को लेकर सांप्रदायिक तनाव को नियंत्रित करने के उनके तौर-तरीकों पर विपक्ष के निशाने पर भी रहे.हेमंत सोरेन राज्य के खाली खजाने को लेकर लगातार केंद्र और मीडिया के सामने बोलते रहे लेकिन इस बीच रघुवर दास के कुछ फैसले इस सरकार के गले की फांस बनते नजर आ रहे हैं.

हेमंत सरकार इन फैसलों को लागू कर पा रही न ही इनका विरोध कर पा रही. ये हैं वो फैसले-

1. नियोजन नीति रद्द, 9,013 लोगों की सरकारी नौकरी खत्म

बीते 21 सितंबर को झारखंड हाईकोर्ट के तीन जजों की बेंच ने राज्य हेमंत सरकार की नियोजन नीति को रद्द कर दिया है. नीति के मुताबिक थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरी में अनुसूचित जिले (13) में सिर्फ उसी जिले के लोगों को प्राथमिकता दी गई थी. जबकि गैर अनुसूचित (11) जिलों में सभी जिलों के लोग आवेदन कर सकते थे. 2016 में रघुवर सरकार ने 10 साल के लिए इसे लागू किया था. जिसे रद्द करते हुए कोर्ट ने फिर से नियुक्ति प्रक्रिया जारी करने को कहा है. हालांकि 63 पन्नों के आदेश में कोर्ट ने गैर अनुसूचित जिलों में चल रहे नियुक्ति प्रक्रिया को जारी रखने को कहा है.कोर्ट के इस आदेश के बाद इन 12 जिलों में बहाल 3,686 शिक्षक, 2,506 डीएसपी, 2,184 वनरक्षी, 637 रेडियो ऑपरेटरों की नौकरी पर खतरे में चली गई है. मामले के एक वकील संजय पिपरवाल ने बताया कि कोर्ट ने साफ कहा कि आप 100 फीसदी आरक्षण लागू नहीं कर सकते हैं, जिसके आधार पर यह नियुक्ति रद्द की गई है.

बीजेपी के नेता बाबूलाल मरांडी ने कहा कि हेमंत सरकार ने हाईकोर्ट में इस नीति को सही से डिफेंड नहीं किया. वहीं सीएम हेमंत सोरेन ने मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने का निर्यण लिया है.

2. सहायक पुलिस नियुक्ति प्रक्रिया

2017 में रघुवर सरकार ने अति नक्सल प्रभावित इलाकों के युवाओं को रोजगार देने के लिए एक योजना लाई. जिसके तहत 10 हजार रुपए के मानदेय पर उन्हें सहायक पुलिस के पद पर सीधी नियुक्ति दी गई. राज्य के 12 जिलों से कुल 3,500 युवाओं को नौकरी दी गई. शर्त ये थी कि दो प्लस एक, यानी पहले दो साल फिर एक साल का एक्सटेंशन इन्हें दिया जाएगा. आने वाले समय में पुलिस बहाली में इन्हें पूर्व के काम के आधार पर प्राथमिकता दी जाएगी.नियम में ये नहीं था कि तीन साल के बाद ये काम पर रहेंगे या बाहर हो जाएंगे. अब जब इनकी नौकरी का समय पूरा हो चला है तब ये सहायक पुलिसकर्मी अपनी नौकरी को स्थाई करने की मांग कर रहे हैं. इसके लिए बीते 12 सितंबर से रांची में आंदोलन कर रहे हैं. इस दौरान जिला पुलिस और इनके बीच संघर्ष भी हुआ, 10 से अधिक पुलिसकर्मी और सहायक पुलिसकर्मी घायल भी हुए. स्थिति ये है कि इन इलाकों में, जहां के ये रहने वाले हैं, वहां माओवादी इनसे कह रहे हैं कि हमारे साथ आ जाओ.

सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री मिथिलेश ठाकुर समझौता करने पहुंचे. इन्हें आश्वासन दिया कि इनका सेवा विस्तार किया जाएगा. मानदेय बढ़ाने के साथ पुलिस बहाली के वक्त वर्तमान कामकाज के आधार पर जो अतिरिक्त मिलना था, उसमें भी बढ़ोत्तरी की जाएगी लेकिन ये नहीं माने. विधानसभा सत्र के दौरान इस मसले पर सीएम ने कहा कि सरकार इन्हें मनाने जाती है. जब सरकारी गाड़ी वहां से निकलती है तो तुरंत विपक्ष के लोग पहुंच कर भड़का देते हैं. फिलहाल दो साल का एक्सटेंशन देकर सरकार ने ये बला कुछ समय के लिए टाल ली है.

3. एनजीटी ने जुर्माना वसूलने का दिया आदेश

बीते 11 सितंबर को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का एक अहम फैसला झारखंड सरकार के लिए एक और झटका साबित हुआ है. ट्रिब्यूनल ने कहा कि नया बना विधानसभा भवन और हाईकोर्ट भवन बिना पर्यावरण स्वीकृति के ही बना दिया गया है. ऐसे में इसके निर्माण से पर्यावरण को हुए नुकसान का आकलन कर ठेकेदार और संबंधित अधिकारियों से इसकी वसूली की जाए.

ट्रिब्यूनल तक इस मामले को ले जाने वाले वकील आरके सिंह के मुताबिक हाइकोर्ट के लिए मार्च 2020 तक करीब 81 करोड़ व विधानसभा के लिए करीब 49 करोड़ का आकलन किया गया था. नुकासन की राशि हर दिन बढ़ती जायेगी. भुगतान भी 3 माह के अंदर करने का आदेश है. यानी कुल 130 करोड़ रुपए का भुगतान करना होगा. ध्यान रहे कि विधानसभा भवन का उद्घाटन बीते साल 12 सितंबर को पीएम मोदी के हाथों करवाया गया था.

आरके सिंह ने बताया कि एनवायरमेंट प्रोटेक्शन एक्ट सेक्शन 19 के तहत दोषियों पर फौजदारी मुकदमा भी चलेगा. खास बात ये है कि ट्रिब्यूनल ने विधानसभा भवन के लिए जुर्माने की राशि तय कर दी है. क्योंकि उसे एन्वारामेंटल क्लियरेंस मिल चुका है. लेकिन हाईकोर्ट भवन के लिए अभी तक एनवायरमेंटल क्लीयरेंस नहीं लिया गया है. ऐसे में जुर्माने की राशि हर दिन 53,250 रुपए लगेगी.

4. डीवीसी ने कहा 5 हजार करोड़ चुकाए, नहीं तो काट लेंगे पैसा

हाल ही में दामोदर वैली कॉरपोरेशन (डीवीसी) ने झारखंड बिजली वितरण निगम लिमिटेड (जेबीवीएनएल) से कहा है कि उसका बकाये बिल की राशि जमा कराएं. यह राशि कुल 5608.32 करोड़ रुपए है. ऊर्जा मंत्रालय की ओर से 11 सितंबर को मिले नोटिस के मुताबिक अगर 15 दिनों के अंदर यह राशि नहीं चुकाई जाती है तो राज्य सरकार के आरबीआई खाते से चार किश्तों में यह राशि निकाल ली जाएगी. इस प्रक्रिया के लिए केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने 27 अप्रैल 2017 को हुए त्रिपक्षीय (केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय, झारखंड सरकार और आरबीआई) समझौते को आधार बनाया है, जिसके मुताबिक 1417.50 करोड़ प्रति किश्त वसूली जाए

5. बढ़ती ही जा रही है केंद्र सरकार पर निर्भरता

इसी विधानसभा सत्र के दौरान एक और रिपोर्ट चर्चा में है. इसे कंट्रोलर एंड ऑडिटर जेनरल ऑफ इंडिया (कैग) ने जारी किया है. रिपोर्ट के मुताबिक बीते पांच सालों में झारखंड सरकार की आमदनी में 12 प्रतिशत की कमी आई है. यह 50 फीसदी से घटकर 38 फीसदी पर पहुंच गई है. फिलहाल झारखंड को अपने खर्चे के 62 प्रतिशत हिस्से को पूरा करने के लिए केंद्र पर निर्भर रहना पड़ रहा है.

2013-14 में राज्य सरकार की आमदनी 13132.50 करोड़ रुपए थी. उसे केंद्र से 13004.29 करोड़ रुपए मिले थे. उस वक्त आमदनी 50 फीसदी थी. वहीं साल 2014-15 में राज्य सरकार की आमदनी 14684.87 करोड़ हो गई और उसे केंद्र से 6879.69 करोड़ रुपए मिले. आंकड़ा 50 फीसदी से घटकर 47 फीसदी हो गया. साल 2015-16 में स्थिति और नाजुक हो गई. आमदनी घटकर 43, 2016-17 में 40 और 2017-18 में घटकर 38 फीसदी तक पहुंच गई.इस बीच हेमंत सोरेन केंद्र से इस बात की भी गुहार लगात रहे के उसके हिस्से का 50,000 करोड़ रुपया, केंद्र सरकार के पास बकाया है, उसे दिया जाए, ताकि राज्य के विकास योजनाओं को तेज गति से लागू किया जा सके. मुकेश बालयोगी के मुताबिक यह सरफेस रेंट से जुड़ा मामला है. लोग अपने निजी जमीन का मालगुजारी भरते हैं. व्यापारिक जमीन का नगर निगम को टैक्स भरते हैं. जिस जमीन पर खदानें हैं, उसी टैक्स को सरफेस रेंट कहा जाता है. यानी सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड (सीलीएल), स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) जैसी कंपनियां जो यहां खनन कर रही हैं, उसके जमीन का रेंट साल 1952 से ही नहीं दिया गया है.

हालांकि शुरुआती कुछेक महीनों को छोड़ दें तो केंद्र और राज्य सरकार के बीच संबंध खटास ही रहे हैं. खदानों की नीलामी की प्रक्रिया में निजी क्षेत्रों को छूट, उसमें खनन से पहले आवश्यक सोशल असेसमेंट की प्रक्रिया के गैर जरूरी बनाने जैसे प्रावधानों के खिलाफ सोरेन सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई. इसके बाद से दोनों के संबंध तनावपूर्ण ही रहे हैं.

सूत्रों के अनुसार

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