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नरेंद्र मोदी को संकट के वक्त क्यों याद आते हैं राजनाथ सिंह?

साल 2019 में नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल का गठन होते वक़्त जब राजनाथ सिंह को गृह मंत्रालय के बजाय रक्षा मंत्री का कार्यभार दिया गया तो लगा कि उनका क़द कुछ घटा दिया गया है. गृह मंत्रालय में अमित शाह की ताज़पोशी से राजनाथ सिंह ने भी खुद को एक तरह से समेट लिया.

लेकिन वे नरेंद्र मोदी सरकार में अहम बने रहे और इसका अहसास लोगों को एक बार फिर से तब हुआ जब किसानों के लिए प्रस्तावित नए क़ानूनों को लेकर संसद से लेकर सड़क तक मचे हंगामे में सरकार का पक्ष रखने के लिए एक बार फिर से उन्हें ही आगे किया गया और राजनाथ सिंह ‘मैं भी किसान हूं’ कहते हुए इन क़ानूनों का समर्थन करते हुए फिर से संकटमोचक के तौर पर दिखाई दिए.

ये कोई पहला मौका नहीं है जब राजनाथ सिंह सरकार के लिए संकटमोचक के तौर पर दिखाई दिए हैं. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान भी चाहे किसानों का विरोध प्रदर्शन रहा हो, या फिर जम्मू कश्मीर में हुई हिंसा हो या जाट आरक्षण को लेकर हुआ हिंसक आंदोलन हो, राजनाथ मुस्तैदी से सरकार का बचाव करते नज़र आए.

राजनीतिक गलियारे में ढेरों लोग हैं जो राजनाथ सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा से जोड़कर देखते हैं, ऐसा नेता जिसका कोई शत्रु नहीं हो और अपनी इस काबिलियत के चलते राजनाथ सरकार के लिए मुश्किलों के वक्त में रास्ता निकाल ही लेते हैं.

मोदी सरकार में राजनाथ सिंह की अहमियत पर बीबीसी हिंदी ने दो पत्रकारों से बात की, क्या मानना है दोनों का, पढ़ें यहाँ…

राजनाथ नंबर दो नहीं, तो नंबर दो से कम भी नहीं

शरद गुप्ता, वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार

धोती, कुर्ता और सदरी पहने हुए राजनाथ ग्रामीण परिवेश का प्रतिनिधित्व भी करते हैं. सरकार में पिछले छह वर्षों से वह नंबर दो की भूमिका में है. हालांकि एनडीए-एक की तरह उन्हें आधिकारिक तौर पर सरकार में नंबर दो घोषित नहीं किया है, लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा होती रही रहती है कि पीएम मोदी हर विदेश यात्रा पर रवाना होने से पहले राजनाथ सिंह से राय मशविरा करते हैं. संकट के समय में मोदी सरकार का राजनाथ सिंह पर भरोसा कई बार सार्वजनिक तौर पर दिखा भी है.

गलवान घाटी में चीन की तरफ से अतिक्रमण करने पर राजनाथ सिंह भी अपनी भूमिका शानदार ढंग से निभाते नज़र आए. उन्होंने ही संसद के दोनों सदनों में चीन की ओर से सीमा का अतिक्रमण करने पर सरकार का पक्ष मजबूती से रखा. यही नहीं इसी महीने मॉस्को में चीन के रक्षा मंत्री के साथ बातचीत में भी भारत का पक्ष भी उन्होंने रणनीतिक तौर पर चतुराई से रखा. कह सकते हैं कि बतौर रक्षा मंत्री ये ज़िम्मेदारी उन्हें ही निभानी थी लेकिन हमने यह भी देखा है कि कैसे अतीत में इन मौके पर पीएम मोदी ख़ुद आगे आ जाते रहे हैं.

फ़रवरी के अंत में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत में पूरे देश में जैसा माहौल दिखा उसका रूस पर असर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन जब चीनी आक्रमण की वजह से देश को अत्याधुनिक हथियारों की ज़रूरत पड़ी तो रूस को मनाने के लिए राजनाथ सिंह को ही भेजा गया.

वैसे राफ़ेल विमान का तिलक कर और उसके टायर के नीचे नींबू मिर्च रखने की वजह से वो विवादों में भी घिर गए. लेकिन इसे भी अंधविश्वास के बजाय हिंदू परंपराओं का पालन और राजनाथ सिंह के भदेसपने की निशानी के तौर पर देखने वालों की कमी नहीं है.

दरअसल छह वर्ष पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में बतौर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की अहम भूमिका थी. चाहे लालकृष्ण आडवाणी की आपत्ति हो या सुषमा स्वराज का विरोध, राजनाथ सिंह ने सभी राजनीतिक चुनौतियों का मुक़ाबला कर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनवाया.

हालांकि उस दौरान यह भी कहा जा रहा था कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत न मिलने की सूरत में वे दूसरे सहयोगी दलों और बीजू जनता दल अन्ना डीएमके और तृणमूल कांग्रेस जैसे गुट निरपेक्ष दलों के सहयोग से खुद को सर्वसम्मति उम्मीदवार बनाने की योजना बना चुके थे.

यही वजह है कि मोदी सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक होने के बावजूद राजनाथ कभी भी उनके उस तरह विश्वासपात्र नहीं बन सके जैसे उनके पहले कार्यकाल में अरुण जेटली थे या दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में अमित शाह.

अमित शाह ने गृहमंत्री बनते ही तीन तलाक़ को क़ानून बनाकर और अनुच्छेद 370 ख़ारिज कर जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर ज़बरदस्त शुरुआत की. उनके बढ़ते क़द का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता था कि वे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ विभिन्न विषयों पर लगातार बैठक कर रहे थे.

लेकिन पहले जेटली की अस्वस्थता और बाद में अमित शाह के ख़राब स्वास्थ्य की वजह से मोदी सरकार में राजनाथ सिंह की प्रासंगिकता बनी रही. पूर्व बीजेपी अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी के मुक़ाबले मोदी राजनाथ सिंह पर अधिक भरोसा करते हैं.

बीजेपी के पास उत्तर भारत में राजनाथ जैसा दूसरा चेहरा नहीं

रामदत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार

भारतीय जनता पार्टी का असर आज भी उत्तर भारतीय राज्यों में ही ज़्यादा है और इन राज्यों में बीजेपी के पास राजनाथ सिंह से बेहतर कोई दूसरा चेहरा नहीं है.

उत्तर भारत में भारतीय जनता पार्टी का दूसरा कोई नेता उनके आसपास नहीं ठहरता है.

यह सच्चाई है, इसके चलते ही मोदी सरकार को संकट के वक्त में राजनाथ सिंह याद आते रहते हैं. लेकिन बात इतने भर नहीं है. राजनाथ सिंह न केवल संकट के वक्त सामने आते हैं बल्कि संकट से निकाल भी लेते हैं. क्योंकि राजनाथ सिंह क्राइसिस मैनेजमेंट में माहिर नेता हैं.

एक तो अटल बिहारी वाजपेयी से उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा है और दूसरा तमाम राजनीतिक पार्टी के नेताओं से उनके अच्छे संपर्क हैं. वे सर्वसुलभ हैं और हर तरह के लोगों से रिलेशनशिप मेंटेन रखते हैं. वे भारतीय जनता पार्टी के दो-दो बार अध्यक्ष रहे हैं लिहाजा पार्टी के अंदर संगठनात्मक तौर पर भी उनकी अच्छी पकड़ है.

इतना ही नहीं संघ का भरोसा भी उनको मिला हुआ है. इन सबके साथ ही राजनाथ सिंह को समय और ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद को ढालने की प्रवृति भी है. तभी तो पार्टी अध्यक्ष होते हुए भी उन्होंने नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया था. हालांकि उस वक्त वे खुद को रेस में बनाए रखने के लिए लालकृष्ण आडवाणी को होड़ से बाहर करना चाहते थे.

पीएम मोदी के साथ तब से ही उनके कामकाजी रिश्ते मधुर रहे हैं. वे दी गई ज़िम्मेदारियों को अच्छे से निभाते हैं और ज़रूरत पड़ने पर खुद को वहां से अलग भी कर लेते हैं. यही उनकी ख़ासियत है, इसलिए भी समय के साथ उनका महत्व बना हुआ है. उनके राजनीतिक अनुभव के चलते मोदी सरकार उनकी उपेक्षा भी नहीं कर सकती.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पीएम मोदी उन पर सबसे ज़्यादा भरोसा करते हैं. दरअसल सत्ता पर काबिज शख़्स को हमेशा एक तरह से इनसिक्योरिटी होती है कि नंबर दो पर अगर कोई दमदार नेता आ जाए तो कभी भी ख़तरा हो सकता है. इसलिए बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनका इस्तेमाल जिन वजहों से करते रहते हैं उन्हीं वजहों से उन्हें नंबर दो भी नहीं बना सकते हैं.

राजनाथ सिंह भी इसको बखूबी समझते ही हैं, लेकिन वो यह जानते हैं कि संकट के समय वह जो कर सकते हैं, उनकी जो स्वीकार्यता है, उसका कोई विकल्प मोदी-शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी में नहीं है.

राजनाथ सिंह का राजनीतिक करियर

68 साल के राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री पद के सिवा भारतीय राजनीति में वह सब हासिल कर लिया है जो हर नेता का सपना होता है. वे मोदी सरकार में लगातार दूसरे कार्यकाल में संकटमोचक मंत्री बने हुए हैं. वे भारतीय जनता पार्टी के सबसे प्रभाव रखने वाले नेताओं में हैं, नेताओं से लेकर आम लोगों के बीच.

कभी भौतिक विज्ञान के लेक्चरर रहे राजनाथ सिंह ने पार्टी के आम कार्यकर्ता से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में अहम मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी संभाला है, साथ ही वो विश्व की सबसे बड़ी पार्टी का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के दो-दो बार अध्यक्ष के तौर पर भी असर छोड़ने में कामयाब रहे हैं.

संघ की पृष्ठभूमि

राजनाथ सिंह बचपन से ही संघ से जुड़े रहे और 1975 में 24 वर्ष की उम्र में बीजेपी की पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ के मिर्जापुर इकाई के ज़िला अध्यक्ष बनाए गए.

आपातकाल के दौरान दो वर्ष जेल में बिताने के बाद 1977 में वे पहली बार विधायक बने. 1984 में भाजपा युवा मोर्चा के राज्य अध्यक्ष बने 1986 में राष्ट्रीय महामंत्री और 1988 में मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष. साथ ही उत्तर प्रदेश विधान परिषद के भी सदस्य बनाए गए.

1991 में बनी कल्याण सिंह सरकार में शिक्षा मंत्री बन कर वे न सिर्फ़ नकल विरोधी अध्यादेश लाए, जिसके तहत नकल करना ग़ैर ज़मानती अपराध बना दिया गया था, बल्कि उन्होंने सिलेबस में वैदिक गणित जैसे विषय भी शामिल कराए. वे बीजेपी में आज भी संघ के सबसे क़रीबी नेताओं में माने जाते हैं.

1999 में अटल सरकार में परिवहन मंत्री रहे राजनाथ को 2000 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का तब मौका मिला जब वयोवृद्ध रामप्रकाश गुप्त को अस्वस्थता और कार्यकुशलता की कमी की वजह से हटाना पड़ा. 2002 के यूपी चुनाव में उनके नेतृत्व में बीजेपी को क़रारी हार का सामना करना पड़ा. लेकिन वे पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में बतौर केंद्रीय कृषि मंत्री शामिल कर लिए गए. उस दौरान उन्होंने किसान कॉल सेंटर, फसल बीमा योजना और किसान क्रेडिट कार्ड जैसी योजनाएं शुरू कर किसानों की मुश्किलें आसान बनाने के प्रयास किए.

2004 में बने पार्टी अध्यक्ष

2004 में बीजेपी को लोकसभा चुनाव में असफलता हाथ लगी लेकिन अगले ही वर्ष राजनाथ सिंह को लालकृष्ण आडवाणी की जगह बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया.

मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ़ कर आडवाणी विवादों में फंसे और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा जबकि दूसरे कद्दावर बीजेपी नेता प्रमोद महाजन की भी असमय मौत हो गई थी. ऐसे में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के लिए राजनाथ सिंह ही सबसे बेहतर उम्मीदवार माने गए.

वे 2009 तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. इस दौरान उन्होंने पार्टी में देशव्यापी ज़बरदस्त सदस्यता अभियान चलाया और अटल जी के क़रीबी सहयोगी रहे जसवंत सिंह को जिन्ना की तारीफ़ करने की वजह से पार्टी से निकाला.

2013 में तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी के पूर्ति विवाद में फंसने की वजह से उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा और राजनाथ सिंह को एक बार फिर अध्यक्ष बनने का मौका मिला. इस बार उन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त किया और उसके बाद से हर मुश्किल में वे मोदी के लिए संकटमोचक की भूमिका निभाते आए हैं और यही वजह है कि उन्हें भारतीय राजनीति में ए मैन ऑफ़ ऑल सीज़न माना जाता है. ख़ास बात यह है कि इस दौरान वे अपने विपक्षियों के बारे में भी कभी आलोचना करते नज़र नहीं आते हैं.

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